भारत में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) लंबे समय से ग्रामीण भारत की आर्थिक रीढ़ बना हुआ है। अब इस योजना का नाम बदलकर “पूज्य बाबू रोजगार योजना” रखने की चर्चा ने राजनीतिक और सामाजिक हलचल बढ़ा दी है। सवाल यह है कि सरकार का इस कदम के पीछे असली उद्देश्य क्या है, और इसका प्रभाव आम ग्रामीणों पर कैसा पड़ेगा?
अब तक मनरेगा का योगदान
मनरेगा की शुरुआत साल 2005 में हुई थी, जिसका मकसद था हर ग्रामीण परिवार को साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार सुनिश्चित करना। 20 सालों में इस योजना ने लाखों परिवारों को बेरोजगारी से राहत दी, जल संरक्षण से लेकर सड़क निर्माण तक, मनरेगा ग्रामीण भारत के विकास का मजबूत आधार बनी।
रखा जाएगा पूज्य बाबू रोजगार योजना
सूत्रों के मुताबिक, सरकार महात्मा गांधी को “पूज्य बाबू” के नाम से सम्मान देने के उद्देश्य से इस योजना का नाम बदलने पर विचार कर रही है। इससे न केवल राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि दी जाएगी, बल्कि युवाओं और नई पीढ़ी में गांधीजी के आदर्शों को फिर से जीवंत करने का प्रयास भी होगा।
जहां एक वर्ग इसे एक सकारात्मक सांस्कृतिक पहल मानता है, वहीं विपक्ष ने इसे “ब्रांडिंग की राजनीति” बताया है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि योजना का नाम चाहे जो भी हो, असली चुनौती उसकी पारदर्शिता, फंडिंग और कार्यान्वयन सुनिश्चित करना है।
जरूरी है कि नाम बदलने के साथ-साथ सरकार इस बात पर भी ध्यान दे कि ग्रामीण मजदूरों को समय पर भुगतान, तकनीकी सहायता और योजनाओं का सही लाभ मिल सके। क्योंकि अंत में, इस योजना का उद्देश्य नाम नहीं, बल्कि रोजगार और आत्मनिर्भरता है।
योजना का नाम चाहे “मनरेगा” रहे या “पूज्य बाबू रोजगार योजना”, इसकी सार्थकता तभी बनी रहेगी जब यह देश के हर ग्रामीण परिवार तक रोज़गार का अवसर पहुंचा सके। अगर इस नाम परिवर्तन से नई ऊर्जा और सम्मान की भावना पैदा होती है, तो यह भारत के विकास की दिशा में एक और सकारात्मक कदम माना जा सकता है।
