300 चीनी सैनिकों को अकेले मार गिराने वाले Rifleman Jaswant Singh Rawat की कहानी

Rifleman Jaswant Singh Rawat
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Rifleman Jaswant Singh Rawat: राइफलमैन जसवंत सिंह रावत वह महावीर योद्धा और सिपाही हैं, जिनके योगदान से भारत का पूरा इतिहास बदल गया था। राइफलमैन जसवंत सिंह रावत(Rifleman Jaswant Singh Rawat) का जन्म 19 अगस्त 1941 को उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले के बरयूं गांव में श्री गुमान सिंह रावत के घर हुआ था। जो उस दौरान ब्रिटिश गढ़वाल का जिला था। वह भारतीय थल सेना के गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट में सैनिक थे। जिस उम्र में आमतौर पर बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे होते हैं , महज 21 साल की उम्र में राइफलमैन जसवंत सिंह रावत ने अपने देश के लिए बलिदान दे दिया था। वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध में अरुणाचल प्रदेश में नूरानांग की लड़ाई में उन्होंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था।

बेहद गरीबी में बीता जीवन

पर्वतीय राज्य उत्तराखंड अपने प्राकृतिक सौंदर्य और धार्मिक संस्कृति के लिए जाना जाता है। परंतु इस भूमि पर एसे अनेक वीर एवं विराम नहीं है जिनके बारे में जानकर आप हैरान रह जाएंगे। इन्हीं में से एक राइफल जसवंत सिंह रावत है। इनका जन्म पौड़ी, गढ़वाल में हुआ था। जसवंत सिंह के पिता श्री गुमान सिंह रावत देहरादून में मिलिट्री डेयरी फार्म के कर्मचारी थे। इनकी माता का नाम लीलावती था। उनकी मां उन्हें जस्सू कहकर पुकारती थी। जसवंत सिंह के दो भाई विजय सिंह एवं रणवीर सिंह है।
जसवंत सिंह रावत के घर में बेहद गरीबी की स्थिति थी। कभी- कभी उनके माता-पिता के लिए एक समय का खाना भी जुटा पाना मुश्किल हो जाता था। परंतु उनके माता-पिता ने कभी इस बात का एहसास अपने बेटे को नहीं होने दिया और उनकी सभी ख्वाहिश जरूरत के अनुसार पूरी की थी।

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इस व्याख्या ने बदला जसवंत सिंह का बचपन

जसवंत सिंह रावत अन्य बच्चों की तरह व्यतीत कर रहे थे। पढ़ाई और खेल दोनों में ही में काफी तेज थे। लेकिन एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिससे उनका पूरा बचपन बदल गया घर के जिम्मेदार बड़े बेटे की भूमिका निभाने में जुट गए। एक दिन जसवंत सिंह स्कूल से आए और स्काउट ट्रेनिंग में भाग लेने की बात करने लगे और अपने पिता से नई वर्दी दिलाने की बात कहने लगे। इसको लेकर उनके माता-पिता के बीच चर्चा हुई इस दौरान उन्होंने अपने माता-पिता की बातें सुनी और पता लगा क्योंकि घर की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है और केवल वही इसमें सुधार ला सकते हैं।

अपने पिता के लिए साइकिल लाने का लिया प्रण

जसवंत सिंह के पिता श्री गुमान सिंह रावत दूध बेचने पैदल ही जाया करते थे। पिता की बढ़ती उम्र को देखते हुए जसवंत सिंह स्कूल में छोटी कक्षा में ही यह प्रण ले लिया था कि वह अपने पिता के लिए साइकिल लाएंगे। जसवंत सिंह ने अपने गुल्लक के पैसों से और अफसरों के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर मिली फीस से अपने पिता के लिए साइकिल खरीदी थी।

कक्षा 9 के बाद हुए फौज में भर्ती

जसवंत सिंह रावत ने कक्षा 9 तक की शिक्षा पूरी की थी। इसके बाद उन्होंने उत्तराखंड के लैंसडाउन में गढ़वाल राइफलस रेजिमेंटल सेंटर में दाखिला लिया था। उनके मामा प्रताप सिंह नेगी ने उन्हें फौज में भर्ती कराया था। उनके मामा सेवानिवृत्त मेजर थे। जिन्होंने भारतीय सेना में सेवा की थी। अपने बचपन के दौरान जसवंत सिंह उज्जवल छात्र थे लेकिन अपने परिवार की आंख समस्याओं के कारण उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा था।

19 साल की उम्र में बने फौजी

जसवंत रावत के अंदर अपने देश के प्रति इतना प्रेम था कि वह केवल 17 साल की उम्र में फौज में भर्ती होने चले गए थे। परंतु अपनी पहली भर्ती में वह पास नहीं हो पाए थे। इसके बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और कड़ी मेहनत की थी। फिर जसवंत सिंह रावत 19 साल की छोटी उम्र में भारतीय सेना में भर्ती हो गए थे। हालांकि जसवंत सिंह के परिवार के कुछ ही सदस्य सेना में शामिल हुए थे। लेकिन उनके पास एक समृद्ध पैतृक विरासत थी। जहां उनके पूर्वजों वीर सेनानी भूपू राउत और टीलू रौतेली ने गढ़वाल दरबार में सैन्य अधिकारियों के रूप में सेवा की थी। उन्होंने अपने साहस व वीरता के कारण गढ़वाल के इतिहास में अपना नाम सम्मान से दर्ज कराया है। तीलू रौतेली को ‘गढ़वाल की रानी लक्ष्मीबाई’ भी कहा जाता है।

प्रशिक्षण पूरा होते ही गए अरुणाचल

19 अगस्त 1960 को जसवंत सिंह रावत को बतौर राइफलमैन के पद पर सेना में शामिल कर लिया गया था। 14 सितंबर 1961 को उनकी ट्रेनिंग पूरी हो गई थी। प्रशिक्षण पूरा होने के बाद जसवंत सिंह को 17 नवंबर 1962 को सेला पास की रक्षा के लिए अपनी यूनिट 04 गढ़वाल राइफल्स के साथ अरुणाचल प्रदेश में तैनात किया गया था। उनकी बटालियन का काम एक ब्रिजहेड स्थापित करना और नूरानांग रिज को सुरक्षित करना था।

युद्ध के बीच शुरू हुई प्रेम कहानी

वर्ष 1962 में अरुणाचल सीमा पर भारत और चीन के बीच घमासान युद्ध चल रहा था। इस दौरान राइफलमैन जसवंत सिंह रावत पिछले 24 घंटों से पोस्ट पर तैनात अकेले योद्धा थे। चीनी सेना को इस बात की भनक न लगे इसके कारण उन्होंने उन्हें मूर्ख बनाने के लिए पहाड़ी की चोटी पर एक खाई बना दी थी और विभिन्न स्थानों पर राइफलें रख दी थी। तब उन्हें लगा कि कोई खाई की ओर आ रहा है। वह अपनी राइफल तान कर गोली चलाने के लिए तैयार हो गए थे। लेकिन वहां एक लड़की थी जिसका नाम सेला था जो भोजन और गोला-बारूद लेकर जसवंत सिंह के पास आई थी।

सेला नाम की मोनपा लड़की को जसवंत सिंह से प्यार हो गया था। यह उस समय की बात है जब भारत-चीन युद्ध के दौरान जसवंत सिंह रावत चीनी सेना के खिलाफ अकेले लड़ रहे थे। तब सेला ने अपनी बहन नूरा की मदद लेकर गोला-बारूद और भोजन की आपूर्ति करके जसवंत सिंह की मदद की थी। हालांकि यह प्रेम कहानी पूरी तरह से सच है या नहीं इसकी अबतक पूरी जांच नहीं हुई है।

बुरे हालात देख सतर्क हुए जसवंत

17 नवंबर 1962 को चौथी गढ़वाल राइफल को नेफ़ा, अरुणाचल प्रदेश की तवांग चू नदी पर नूरानांग की सुरक्षा हेतु भेजा गया था। लेकिन तब तक चीनी सेना ने हमला बोल दिया था। यह स्थान 14,000 फीट की ऊँचाई पर था। चीनी सैनिकों की अधिक संख्या थी और उनके पास आधुनिक हथियार भी थे। इसके कारण सैनिक हताहत हो रहे थे। दुश्मन के पास एक मीडियम मशीनगन थी, जिसे कि वे पुल के निकट लाने में सफल हो गये। इस एल.एम.जी. से पुल व प्लाटून दोनों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई थी।

72 घंटों तक 300 चीनी सैनिकों को मारा

17 नवंबर 1962 को सुबह करीब 5 बजे चीन के सैनिकों ने अरुणाचल प्रदेश पर कब्जे के लिए सेला टॉप के नजदीक धावा बोल दिया था। उस दौरान वहां पर तैनात गढ़वाल राइफल्स की डेल्टा कंपनी ने उनका सामना किया था। जसवंत सिंह रावत भी डेल्टा कंपनी का हिस्सा थे। खराब स्थिति को देखते हुए जसवंत सिंह रावत ने तुरंत फैसला लिया और वह एकदम अपने साथियों के साथ हरकत में आ गए थे। इस तरह 17 नवंबर 1962 को शुरू हुई यह लड़ाई अगले 72 घंटों तक लगातार जारी रही। इस बीच जसवंत अकेले ही चीनी सैनिकों पर भारी पड़ गए थे।

जसवंत सिंह रावत ने अपनी विशेष योजना बनाई थी। उन्होंने अकेले ही करीब 300 से अधिक चीनी सैनिकों मार गिराया था। जसवंत सिंह ने चीनी सैनिकों को अरुणाचल की सीमा पर रोक दिया था लेकिन उन्हें पीछे नहीं धकेल सके थे। लड़ाई के दौरान उन्हें पीछे हटने के आदेश भी दे दिए गए थे।

यह थी जसवंत सिंह की योजना

जसवंत सिंह रावत ने बहुत बुरे हालात होते हुए भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी थी। उनकी टुकड़ी के पास जितने भी रसद और गोला- बारूद थे वह सब भी खत्म हो गए थे। इस दौरान ऐसा माहौल बन गया था कि बचने के बहुत कम उम्मीद थी। पर जसवंत सिंह के अंदर देश भक्ति कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने इस आदेश को नहीं माना था और वह अपनी आखिरी सांस तक दुश्मनों से लड़ते रहे थे। उन्हें चीनी सैनिकों की ताकत का पूरा अंदाजा था। क्योंकि उनके पास सभी आधुनिक हथियार थे पर वह जानते थे कि जंग में आपके सामने दुश्मन कितना बड़ा ही क्यों न हो पर हमें कभी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए थी।

नई रणनीति से बनाया चीनी सैनिकों को मूर्ख

जसवंत सिंह ने यह सोच लिया था कि वह अकेले हैं तो उन्हें कोई और रणनीति बनाकर चीनी सैनिकों का सामना करना पड़ेगा।चीनीयों से लड़ते हुए उनके सारे साथी शहीद हो गए थे। यह हालात को देखते हुए उन्होंने तय किया कि वह लड़ाई का तरीका बदल देंगे। उन्होंने दुश्मन भ्रमित किया ताकि उन्हें यह पता ना चले कि भारतीय सैनिकों की संख्या खत्म हो चुकी हैं। उन्होंने दिमाग लगाते हुए जितने भी हथियार और गोला-बारूद बचे थे उन्हें इकट्ठा किया और बंकरों में रख दिया था। इस दौरान सेला और नूरा नाम की बहनों ने उनकी मदद की थी। हथियार और गोला बारूद के साथ-साथ उन्होंने जसवंत सिंह रावत की खाने से भी सहायता की थी।

अपनी आखिरी सांस तक किया दुश्मनों का सामना

जसवंत सिंह रावत ने जिस प्रकार से योजना बनाई थी उन्होंने उसके अनुसार कार्य किया। वे चाहते थे कि चीनी सैनिक भ्रमित हो जाए और उन्हें पता ना चले कि भारतीय सैनिक खत्म हो चुके हैं। लेकिन एक समय पर ऐसा हुआ जब जसवंत खामोश हो गए और उनकी तरफ से सन्नाटा देखकर चीनी सैनिकों को इस बात की भनक लग गई थी कि भारतीय सैनिक खत्म हो गए हैं। परंतु जसवंत सिंह ने बिना डरे कदम आगे बढ़ाएं उन्होंने निडर होकर फैसले लिए। जसवंत को भी इसी मौके का इंतजार था जब चीनी सैनिक खुद उनके सामने आए और जैसे ही यह हुआ उन्होंने अचानक उन पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी थी।

ऐसे किया था चीनी सैनिकों को गुमराह

जसवंत सिंह ने बड़ी चतुर का के साथ चीनियों को बेवकूफ बनाया था।वह अपनी जगह बदल-बदल कर चीनी सैनिकों पर हमला कर रहे थे। वह इस तरह से इतने लड़ रहे थे ताकि चीनी सैनिकों को लगे कि कोई अकेला व्यक्ति नहीं बल्कि पूरी बटालियन उन से लड़ रही हो। ताकि वह यह ना जान पाए कि उनका विपक्षी देश कमजोर पड़ गया है। जसवंत सिंह रावत इस तरह से काफी देर तक लड़ते रहे और चिड़ियों को सबक सिखाते रहे।

पूरे 72 घंटे तक ऐसा ही चलता रहा वह बिना डरे और हिम्मत के साथ विपक्षी देश का सामना करते रहे। लेकिन एक समय ऐसा आया था जब वह चीनी सैनिकों द्वारा टारगेट कर लिए गए थे। जब जसवंत सिंह को इस बात की अनुभूति हो गई कि वह पकड़े जाने वाले हैं तो उन्होंने गर्व के साथ मौत को गले लगाने का फैसला ले लिया था। जांबाज योद्धा जसवंत अकेले ही इन 72 घंटों में भूखे प्यासे और कम संसाधनों के बाद भी चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था।

शहादत के बावजूद नहीं कहलाते स्वर्गीय

हमारे देश भारत में वीर जवानों की कमी नहीं है। यहां की सभी माताएं वीरों को जन्म देती हैं। पूरे विश्व में भारतीय सैनिकों की अलग ही पहचान है। राइफलमैन जसवंत सिंह रावत का इंडियन आर्मी में अनोखा और अलग स्थान है। भारतीय थल सेना में जितने भी शहीद जवान है उनके नाम के आगे स्वर्गीय लिखा जाता है। लेकिन केवल जसवंत सिंह रावत ही एक ऐसे जवान है जिनकी शहादत के बाद भी उनके नाम के आगे स्वर्गीय नहीं लिखा जाता है। इसके साथ-साथ केवल जसवंत सिंह जी एकमात्र सिपाही है जिनकी जयंती 19 अगस्त को देशभर में मनाई जाती है।

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