पिछले 15 सालों से यमुना घाटी स्थित देवलसारी गांव के नरेश नौटियाल ने यमुना घाटी के उत्पादों को बाजार में उतारने का प्रणय किया है। उनकी प्रतिज्ञा सिर्फ यही थी कि वह रवाई घाटी के लाल चावल और यमुना घाटी के तमाम उत्पाद जिन्हें बाजार नहीं मिल पाया है, उन्हें बाजार तक पहुंचाना होगा।
नरेश नौटियाल की कहानी
दरअसल नरेश नौटियाल ने गांव-गांव जाकर लगभग 3000 मझौले किसान परिवारों को अपने साथ जोड़ने का सफल प्रयास किया है। यह वे किसान परिवार हैं जिनकी फसल की उत्पादन मात्रा कि पैदावर 1 क्विंटल से लेकर 20 कुंतल तक होती है। यह वही किसान है जो विविध प्रकार की फसलों को उगाते हैं। इनके पास राजमा की कई प्रकार की वैरायटी है और अन्य दलों की भी अलग-अलग प्रकार की वैरायटी है। यह किसान लाल चावल से लेकर के दाल, सब्जी और अन्य फल उत्पादन का कार्य करते हैं।
लगभग 3000 परिवारों को नरेश नौटियाल ने अपने सहयोगी के रुप में जोड़ा और उनसे यमुना घाटी के तमाम उत्पादों को खरीदना आरंभ किया। जिसे वह अंतरराष्ट्रीय बाजार तक पहुंचाने का हर समय यत्न करते है।नरेश नौटियाल गांव से लेकर के दिल्ली के प्रगति मैदान तक यमुना घाटी के उत्पादों का बाजार तैयार करते हैं। जबकि इस कार्य में उनके साथ कई तरह की समस्याएं भी आई है। कई बार उन्होंने जो मोटे अनाज अपने सहयोगी किसानों से खरीदे हैं उन्हें बाजार के भाव से बहुत कम रुपए में बेचना पड़ा, जिससे उन्हें भारी आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ा। लेकिन नरेश नौटियाल एक ही सपना बुन चुका था कि यमुना घाटी का उत्पाद बाजार में दिखाई दे और उसकी मूल कीमत लोगों को मालूम हो। 15 साल की सफलता के बाद आज नरेश नौटियाल अपने को खुशियों से फूले नहीं समा रहे है। वह जो भी उत्पाद खरीदते है उसकी अग्रिम बुकिंग उनके पास आ जाती है।
स्वरोजगार की लिखी इबादत
नरेश का कहना है कि यमुना घाटी की धरती सोना उगलती है। जिस समय नरेश नौटियाल ने स्नातक की पढ़ाई के लिए बड़कोट डिग्री कालेज में प्रवेश लिया उसी समय नरेश ने स्वरोजगार की यह इबारत लिख डाली। स्वरोजगार का तात्पर्य नरेश का सिर्फ व सिर्फ यही नहीं था कि वह स्वयं के लिए स्वरोजगार कमा सकें। अलबत्ता नरेश के साथ जुड़े हुए लगभग 3000 परिवारों सहित अपरोक्ष रूप से अन्य हजारों युवा इस विचार से स्वावलंबन की कहानी लिख रहे है।
परिणाम स्वरूप नरेश नौटियाल ने रुद्रा एग्रो स्वायत्त सहकारिता समिति पंजीकृत करवाई है। समिति के साथ अधिकांश महिला किसान जुड़ी हुई है। कुल मिलाकर नरेश नौटियाल के कारोबार से 200 युवा परोक्ष रूप से स्वावलंबी हो चुके हैं, जो अलग-अलग मौसम में अलग-अलग प्रकार के उत्पाद खरीदकर नरेश नौटियाल को एकत्रित करके पहुंचाते हैं। जिनका बाजार से सबसे ऊंचा दाम लेकर किसानों के घर तक नरेश पहुंचा देता है। अर्थात नरेश नौटियाल ने अपने 15 वर्ष के सफर में लोकल फॉर वोकल की कहानी 20 साल पहले गूंथ दी थी। उन्हें इस काम को एक पहचान दिलाने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ी।
नरेश नौटियाल अपनी पत्नी लता नौटियाल के सहयोग को इस कार्य की मजबूत कड़ी बताता है। इसीलिए वे अपने मिशन पर सफल भी हुए है। अब तो यमुना घाटी में नरेश नौटियाल की प्रेरणा से अन्य युवा भी प्रेरित हुए हैं। ज्ञात हो कि प्राकृतिक सौन्दर्य को समेटे और नगदी फसलों के लिए विख्यात उतरकाशी की यमुनाघाटी के देवलसरी गांव के युवा नरेश नौटियाल ने वह करके दिखाया जिसके लिए प्राईवेट लिमिटेड कंपनिया बेजा जोर आजमाइश करती है। मगर स्थानीय उत्पादो को बाजार में पंहुचाने का नायाब तरीका नरेश ने ही निकाला है।
अब तो इस क्षेत्र के ग्रामीण किसान इंतजार में रहते है कि उनके गांव में नगदी फसल को खरीदने वाला नरेश कब आयेगा। नौगांव, पुरोला व मोरी विकास खण्डो के काश्ताकार हो या वहां की महिला स्वयं सहायता समूहों की महिलाऐं। उन्हे बस नरेश नौटियाल का ही इन्तजार रहता है।
उल्लेखनीय हो कि नरेश तो अब उन सीमान्त और मझौले किसानो का दुलारा बन गया। वह उन किसानो से 15 प्रकार की राजमा ही राजमा खरीदता है। जबकि 60 प्रकार की मोटी दाले और है। 15 प्रकार का मतलब समझना थोड़ा कठीन हो सकता है। यहां पहाड़ के गांव में छः प्रकार की ऐसी राजमा है जिसे लोग अपने किचन गार्डन में पैदा करते है। उस राजमा की लम्बी-लम्बी बेल होती है। कुछ राजमा को लोग अन्य फसल के साथ खेतो की मेड़ो पर उगाते है।
इसी प्रकार अन्य मोटी दालें भी है। नरेश के अनुसार उसके पास 60 प्रकार की अन्य मोटी दाले जो हैं, जिसे वह उन्ही किसानो से खरीदते हैं जो विशुद्ध रूप से जैविक खेती करते है। इसके अलावा वह अखरोट, जख्या, साबुत मसाले, साबुत हल्दी दाल से बनी हुई बड़ी, दाल की नाल बड़ी, सिलबटे का पीसा हुआ नमक जैसे 150 प्रकार के स्थानीय उत्पादो की सामग्री को नरेश नौटियाल बाजार उपलब्ध करवाता है। इस तरह अनुमान लगाया जा रहा है कि प्रत्यक्ष रूप से 1000 युवाओं के हाथो नरेश के कारण स्वरोजगार प्राप्त हुआ है।
कह सकते हैं कि अकेले नरेश के इस स्वरोजगार के कारण अप्रत्यक्ष रूप से बीस हजार की जनसंख्या लाभाविन्त हो रही है। नरेश से बातचीत करने से मालूम हुआ कि वह इस कार्य को स्वयं के संसाधनो से संचालित कर रहे है। वे कहते है कि यदि उनके पास आर्थिक संकट नहीं होता तो पलायन को वह धत्ता बता देता। कहता है कि उनकी यमुनाघाटी में पलायन की कोई समस्या नहीं है पर राज्य के जिन जिन जगह पर पलायन एक बिमारी का रूप ले रही है वहां स्थानीय उत्पादो का उत्पादन करके बाजार खड़ा किया जा सकता है।
नरेश पढाई के दौरान से ही संघर्ष का पर्याय बन गया था। खुद ही अपने लिए स्कूली संसाधनो को जोड़ना नरेश की दिनचर्या बनी हुई थी। इस तरह नरेश स्थानीय स्तर पर हार्क नाम की संस्था से जुड़ा। जिसके एक्सपोजर ने नरेश को हिम्मत दी और प्रेरित हुआ, कि स्वरोजगार से ही स्थितियां सुधारी जा सकती है। आखिर वही हुआ और पिछले 15 वर्षो में नरेश ने यमुनाघाटी व गंगा घाटी के स्थानीय उत्पादनो को बाजार में उतारने के व्यवसाय में महारथ हासिल कर डाली। देशभर में लगने वाली प्रदर्शनियों में नरेश के पहाडी उत्पाद अपनी अलग पहचान बना चुके है। दिल्ली के ताल कटोरा स्टेडियम में हर वर्ष व्यापार मेले में नरेश का पहाड़ी उत्पादो का स्टाॅल लगता है। अर्थात संसाधनो के अभाव में भी नरेश का टर्नओवर लगभग 20 लाख रू॰ का बताया जा रहा है।
नरेश कहता है कि उनकी पत्नी उनके साथ उत्पादों की ग्रेडिंग, पैकिंग से लेकर बाजार तक पंहुचाने में कंधा से कंधा मिला के रखती है। उनका यह भी कहना है कि इस कार्य को विशाल रूप देने के लिए बजट की प्रबल आवश्यकता होती है। फिर भी वह इस बात के लिए खुश है कि उनके ही जैसे कुछ युवा इस कार्य को हाथों में लेंगे तो यह कार्य स्वयं ही विशाल होगा। साथ ही उत्पादो की गुणवता भी बनी रहेगी। वे मानते है कि छोटे-छोटे समूहो में ही ऐसे कार्यो की गुणवता व विश्वसनीयता बने रहेगी।