ANR पद्धति के 20 साल बनाम पौधारोपण के 36साल

बात वर्ष 1986-87 के आसपास की है सावन के महीने में हमारे विद्यालय के बच्चों को एक दिन पौधारोपण के लिए निकटवर्ती जंगल या विद्यालय के अंदर ही ले जाया जाता था और पौधै रोपे जाते थे यह दिन हमारे लिए खूब मौज-मस्ती का दिन हुआ करता था क्योंकि इस दिन पढाई -लिखाई नही करनी पड़ती थी, पौधारोपण करने के बाद फिर हम दोबारा उस स्थान पर नहीं जाते थे रोपे गए पौधों का क्या हुआ होगा ऐसी कोई चिंता या जिज्ञासा भी मन में नहीं उठती थी पौधे लगाए और भूल गए,कुछ सालों तक हम सैकड़ों बच्चे पौधे रोपते रहे फिर बाद के दिनों में उच्च शिक्षा के दिनों में पौधारोपण से कोई साबका नहीं पड़ा।

साल 2003 की गर्मियों में में जब अल्मोड़ा शहर की जीवनदायिनी नदी कोसी का पानी रसातल पर पहुंच गया और हमारे भी इलाक़े में अभूतपूर्व जल संकट खड़ा हो गया तो जल स्त्रोतों को रिचार्ज करने के उद्देश्य से वन विभाग के साथ मिलकर हम लोगों ने फिर से पौधारोपण करने की मुहिम चलाई।

 

व्यापार संघ शीतला खेत को साथ में लेकर ऐड़ी गधेरा के दोनों ओर तथा कंपार्टमेंट नंबर 10 से निकलने वाले पानी के स्रोत पर जी-जान लगाकर पौधारोपण किया मगर अगले साल वो पौधे कहीं नजर नहीं आते तो बड़ी हताशा होती धीरे धीरे पौधारोपण से मोह भंग हो गया। फिर लगातार जंगल का भ्रमण करने पर पाया कि बहुत सी जगहों पर, जहां हमने पौधे रोपे भी नहीं थे, बुरांश काफल, अंग्यार (इन प्रजातियों को आज तक नर्सरी में उगाया नहीं जा सका है)के नन्हे नन्हे पौधे धरती का सीना चीर कर बाहर निकल रहे हैं तो आश्चर्य हुआ कि बिना रोपे ये पौधे कहां से निकल आए।

अध्ययन मनन के बाद जानकारी मिली कि अधिकांश पेड़ों की जड़ें,तने के कटने के बाद भी, लंबे समय तक जीवित रहती हैं और उनमें नये पौधों को जन्म देने की असाधारण क्षमता होती है जिसे वैज्ञानिक शब्दावली में सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन या ए एन आर कहा जाता है। फिर उसके बाद आज तक पौधारोपण नहीं किया केवल जंगलों को आग और नुकसान से बचाने पर ही जोर दिया।

साल 2004-5 में स्याही देवी मंदिर में आयोजित बैठक में जब इलाके के 10 से अधिक गांवों ( धामस, नौला, भाकड़, सल्ला रौतेला,चंपाखाली, आनन्दनगर, खरकिया, मटीला, पड्यूला, सूरी, गड़सारी, बरसीला, सड़का और स्याहीदेवी ) की महिलाओं की उपस्थिति में स्याही देवी शीतलाखेत के आरक्षित वन को अगले पांच सालों तक मां स्याही देवी को समर्पित करने का निर्णय लिया गया और महिलाओं, युवाओं ने वन विभाग के साथ जंगल को आग और नुकसान से बचाने में लगातार मेहनत की तो अतीत में अलग अलग कारणों से कट चुके पेड़ों की जड़ों से निकलने वाले पौधों की संख्या लगातार बढ़ती गई।

मज़े की बात यह रही कि जहां पर अतीत में बुरांश का एक पेड़ था पेड़ कटने के बाद उसकी जड़ों से दर्जनों नये पौधों ने जन्म लिया। साल 2012 में भीषण वनाग्नि ने इस पूरे वन क्षेत्र को चपेट में ले लिया और सारी मेहनत बर्बाद हो गई मगर अगले साल बरसात के आने तक फिर से धरती से बांज, बुरांश, काफल, उतीस, अंग्यार के अनगिनत पौधे निकल आये तब से चीजें सकारात्मक तरीके से आगे बढ़ रही है आज इस जंगल के लगभग 1100 हैक्टेयर क्षेत्रफल में बांज, बुरांश, काफल, अंग्यार आदि चौड़ी पत्ती प्रजाति के लाखों पेड़ विकसित हो रहे हैं।

दूसरी तरफ बचपन से लेकर अब तक हजारों लाखों पौधों का रोपण देख चुके हैं मगर अधिकांश मामलों में रोपे गए पौधों को पेड़ बनते नहीं देख सके। हां एक दो संस्थाओं जैसे चिया और ईको टास्क फोर्स द्वारा एक दो स्थानों पर बांज, अकेशिया, सुरई, मोरपंखी जैसे पौधों के पौधारोपण कार्यक्रम में सफलता देखने को मिली मगर वो भी बंजर पहाड़ियों में। चीड़ के जंगलों में,जो कि पर्वतीय इलाकों में बहुत बड़े पैमाने पर हैं, पौधारोपण की सफलता देखने को नहीं मिली।

ANR पद्धति से पिछले 20 सालों में बिना धन, संसाधन के विकसित इस मिश्रित जंगल की तुलना पिछले 36सालों में राज्य के किसी भी हिस्से में लाखों , करोड़ों रूपए खर्च कर किये गये पौधारोपण से की जा सकती है। फिर आप भी कहेंगे “उत्तराखंड के अवनत वन क्षेत्रों को पुनः हरा भरा बनाने के लिए एक ही पद्धति कारगर है वह है ए एन आर”.

Note- Gajendra Kumar Pathak के विचार